// अथ पंचांग विचार प्रकरण //
मुहुर्त का विचार करते समय हमें पंचांग की आवश्यकता होती है पंचांग अर्थात् पांच अंगों का समूह जो इस प्रकार हैं |
१ तिथि
२ वार
३ नक्षत्र
४ योग
५ करण
• अब हम इन पांच अंगों के विषय में विस्तार पूर्वक जानेंगे |
(१) तिथि
* तिथि अर्थात सूर्य और चंद्र के बीच की दूरी दर्शाने वाली संज्ञा
|| पक्षतिथि ज्ञान ||
शुक्ल कृष्णावुभौ पक्षौ देव पित्रे च कर्मणि |
प्रतिपच्च द्वितीया च तृतीया तदनंतरम् ||
चतुर्थी पंचमी षष्ठी सप्तमी चाष्टमी तथा |
नवमी दशमी चैवैकादशी द्वादशी ततः ||
त्रयोदशी ततोज्ञेया ततः प्रोक्ता चतुर्दशी |
पौर्णिमा शुक्लपक्षे तु कृष्णपक्षेत्वमास्मृता ||
• देव कर्म में शुक्ल पक्ष एवं पित्र पक्ष में कृष्ण पक्ष ऐसे दो पक्ष हैं उनमें प्रथमा द्वितीय तृतीय चतुर्थी पंचमी षष्ठी सप्तमी अष्टमी नवमी दशमी एकादशी द्वादशी त्रयोदशी चतुर्दशी और शुक्ल पक्ष में पूर्णिमा एवं कृष्ण पक्ष में अमावस्या तिथि का उल्लेख है |
(२) वार
* सूर्य उदय होने के बाद अगले दिन सूर्य उदय होने तक के समय को वार कहा जाता है
|| वार ज्ञान ||
आदित्यश्चचन्द्रमाभौमौ बुधश्चाथ बृहस्पति: ।
शुक्र: शनैश्चर श्चैतै वासरा: परिकीर्तिता: ।।
अर्थात- आदित्य ( रवि ) चंद्रमा ( सोम )भौम ( मंगल ) बुध बृहस्पति शुक्र शनि ये सात वार कहलाते हैं ।
• गुरुश्चन्द्रोबुध: शुक्र: शुभावारा: शुभे स्मृता: ।
क्रूरास्तु क्रूरकृत्येषु ग्राह्या भौमर्क सूर्यजा: ।।
अर्थात् - गुरु चंद्र बुध और शुक्र ये शुभ वार कहलाते हैं जो शुभ कार्य में शुभ फल देते हैं । तथा मंगल सूर्य और शनि ये क्रूर वार है जो क्रूर कार्य में ग्राह्य हैं ।
(३) नक्षत्र
* क्रांतीवृत्त के आरंभ स्थान से प्रत्येक 13 अंश 12 कला कला के विभाग को नक्षत्र कहते हैं ।
|| नक्षत्र ज्ञान ||
अश्विनी भरणी चैव कत्तिका रोहिणी मृग : । आर्द्रा पुनर्वसु : पुष्यस्ततोऽश्लेषा मघा तथा ॥
पूर्वाफाल्गुनिका तस्मादुत्तराफाल्गुनी तत : । हस्तश्वित्रा तथा स्वातिर्विशाखा तदनन्तरम् ।।
अनुराधा ततो ज्येष्ठा ततो मूलं निगद्यते । पूर्वाषाढोत्तराषाढा त्वभिजिच्छ्रक्ष्णस्तत : ।। धनिष्ठा शतताराख्या पूर्वाभाद्रपदा तत : । उत्तराभाद्रपच्चैव रेवत्येतानि भानि च ।।
अर्थात् - 1 अश्विनी 2 भरणी 3. कृतिका 4 रोहिणी 5 मृगशिर 6 आर्द्रा 7 पुनर्वसु 8 पुष्य 9 आश्लेषा 10 मघा 11 पूर्वाफल्गुनी 12 उत्तरफाल्गुनी 13 हस्त 14 चित्रा 15 स्वाती 16 विशाखा 17 अनुराधा 18 ज्येष्ठा 19 मूला 20 पूर्वाषाढ़ा 21 उत्तराषाढा 22 श्रवण 23 धनिष्ठा 24 शतभिषा 25 पूर्वाभाद्रपद 26 उत्तरभाद्रपद 27 रेवती 28 अभिजीत ये अठ्ठाईस नक्षत्र हैं ।
*अभिजित नक्षत्र की गणना 27 नक्षत्रों में नहीं होती है क्योंकि यह नक्षत्र क्रान्ति चक्र से बाहर पडता है। यह मुहूर्तों आदि में इसे शुभ माना जाता है|
4 योगज्ञान
वाक्पतेरर्क नक्षत्रं श्रवणाच्चान्द्रमेव च ।
गणयेत्तद्युतिंकुर्यायोगः स्यादृक्षशेषतः ।।
* अर्थात् - पुष्य नक्षत्र से सूर्य नक्षत्र तक गिनकर और श्रवण नक्षत्र से चंद्र नक्षत्र तक गिनकर उन दोनों संख्याओं का योग करने पर उसमें 27 का भाग देने पर जो शेष संख्या रहती है वह विष्कुंभ आदि योग कहलाती है ।
विष्कंभः प्रीतिरायुष्मान् सौभाग्यः शोभनस्तथा ।
अतिगण्डः सकाच धृतिः शूलस्तथैव च ॥
गण्डो वृधिव॒वश्चैव व्याघातो हर्षणस्तथा ।
वज्र सिंदधि व्यतीपातोवरीयान परिघः शिवः ।
सिद्धः साध्यः शुभः शुक्लो ब्रह्मन्द्रोवैधृतिःक्रमात् ।
सप्तविंशति योगास्तु कुर्युनर्नाम समं फलम् ।।
। सूर्य - चन्द्र की विशेष दूरियों की स्थितियों को योग कहते हैं । योग 27 प्रकार के होते हैं । दूरियों के आधार पर बनने वाले 27 योगों के नाम क्रमश : इस प्रकार हैं- 1.विष्कुम्भ , 2.प्रीति , 3.आयुष्मान , 4.सौभाग्य , 5.शोभन , 6.अतिगण्ड , 7.सुकर्मा , 8.धृति , 9.शूल , 10.गण्ड , 11.वृद्धि , 12.ध्रुव , 13.व्याघात , 14.हर्षण , 15.वज्र , 16.सिद्धि , 17.व्यतिपात , 18.वरीयान , 19.परिध , 20.शिव , 21.सिद्ध , 22.साध्य , 23.शुभ , 24.शुक्ल , 25.ब्रम , 26.इन्द्र और 27.वैधृति ।
5 करणनामानि ।
ववश्च वालवश्चैव कौलवस्तैतिलस्तथा ।
गरश्च वणिजो विष्टिः सप्तैतानि चराणि च ॥
अंते कृष्णचतुर्दश्यां शकुनिर्दर्शभागयोः ।
ज्ञेयं चतुष्पदं नागं किंस्तुघ्नं प्रतिपद्दले ॥ ॥
(१) बव (२) बालव (३) कोलव(४) तैतिल (४) गर् (४) वनिज (४) विष्टि सात कर्ण है। इसके अतिरिक्त, कृष्णपक्ष की चतुर्दशी की दूसरी छमाही में शकुनि, अमावस्या के पहले छमाही में चतुष्पद, अमावस्या के उत्तरार्ध में नाग, और शुक्लपक्ष के प्रतिपदा के पहले छमाही में किंतूदान, इस प्रकार चार करण पाए जाते हैं।